आनन्द-(घबराहट और तापजुव के साथ ) क्या कमलिनी की शादी हो गई है ? लाडिली-जी हा। आनन्द-किसके साथ? लाडिली-सो तो मैं नहीं कह सकती आपको खुद मालूम हो जायगा । आनन्द-यह बहुत बुरा हुआ। लाडिली-वेशक बुरा हुआ मगर क्या किया जाय जीजाजी (गोपालसिह) की मर्जी ही ऐसी थी क्योंकि किशोरी ने ऐसा करन के लिए उन पर बहुत जोर डाला था अस्तु कमलिनी बहिन दयाव में पड़ गई मगर मैने साफ इनकार कर दिया कि जेसी हू वैसी ही रहूगी। आनन्द-तुमने बहुत अच्छा किया। लाडिली-और मैं ऐसा करने के लिए सख्त कसम खा चुकी है। आनन्द-(ताज्जुब से ) क्या तुम्हारे इस कहने का यह मतलब लगाया जाय कि अव तुम शादी करागी ही नहीं ? लाडिली-बेशक ! आनन्द-यह ता कोई अच्छी बात नहीं । लाडिली-जो हो अब तो मैं कसम खा चुकी है और बहुत जल्द यहा स चली जाने वाली भी हू सिर्फ कामिनी वहिन की शादी हो जाने का इन्तजार कर रही ह। आनन्द-(कुछ सोच कर ) कहा जाओगी? लाडिली-आप लोगों की कृपा से अब तो मेरा बाप भी प्रकट हो गया है अब इसकी चिन्ता ही क्या है ? आनन्द-मगर जहा तक मैं समझता हू तुम्हारे बाप तुम्हें शादी करन के लिए जरूर जार देंगे। लाडिली-इस विषय में उनकी कुछ न चलेगी। लाडिली की वार्ता से आनन्दसिह को ताज्जुब के साथ ही साथ रज भी हुआ और ज्यादे रज ता इस बात का कि अब तक लाडिली ने खडे ही खडे बातचीत की और कुमार को बैठने तक के लिए नहीं कहा। शायद इसका यह मतलब हो कि में ज्याद देर तक आपसे बात नहीं कर सकती। अस्तु आनन्दसिह को काध और दुख के साथ लज्जा ने नी घर दबाया और वे यह कह कर कि अच्छा में जाता हू अपने कमरे की तरफ लौट चल। आनन्दसिह के दिल में जा बातें घूम रही थी उनका अन्दाजा शायद लाडिली का भी मिल गया और जब वे लौट कर जाने लगे तब उसने पुन इस ढग पर कहा मानों उसकी उसकी आखिरी बात अभी पूरी नहीं हुई थी---- क्योंकि जिनकी मुझ पर कृपा रहती थी अब वे और ही ढग क हो गए ।। इस बात ने कुमार को तरदुद में डाल दिया। उन्होंन घूम कर एक तिरछी निगाह लाडिली पर डाली और कहा 'इसका क्या मतलब लाडिली-सो कहने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। हा जव आपकी शादी हो जायगी तब मै साफ आपर कह दूगी उस समय जो कुछ आप राय देंगे उसे में कबूल भी कर लूगे ! इस आखिरी बात से कुमार को कुछ हिम्मत बघ गई मगर पैठने की या और कुछ कहने की हिम्मत न पड़ी और अच्छा कह कर व अपने कमरे में चले आये। तेरहवां बयान विदाह का सब सामान ठीक हा गया मगर हर तरह की तैयारी हा जाने पर भी लोगों की मेहनत में कम्ते नहीं हुई। सब कोई उसी तरह दौडधूप और काम काज में लगे हुए दिखाई दे रह है। महाराज सुरेन्दसिह सभी को लिए हुए धुनारगढ चले गए। अब इस तिलिस्मी मकान में सिर्फ जरूरत की चीजों के ढेर और इन्तजामकार लोगों के डेरे भर ही दिखाई द रहे है। इस मकान में से उन लोगों के लिए भी रास्ता बनाया गया है जो हमत हमते उस तिलिस्मो इमारत में कूदा करेंगे जिसके बनान की आज्ञा इन्द्रदेव को दी गई थी और जो इस समय उन कर तैयार हो गई है। यह इमारत बीस गज लम्बी और इतनी ही चौड़ी थी। ऊँचाई इसकी लगभग चालीस हाथ से कुछ ज्यादे होगी। चारो तरफ की दीवार साफ और चिकनी थी तथा किसी तरफ कोई दरवाजे का निशान दिखाई नहीं देता था। पूरब तरफ ऊपर चढ जाने के लिए छोटी सीढिया बनी हुई थी जिनके दानों तरफ हिफाजत के लिए लाहे क सीखचे लगा दिए गय थ। उसी पूरब तरफ वाली दीवार पर बड़े बडे हरफों में यह भी लिखा हुआ था - देवकीनन्दन खत्री समग्र