पृष्ठ:देवकीनंदन समग्र.pdf/९८३

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JA चारपाई बिछी हुई दिखाई पडी। कुछ देर तक गौर करने पर नानक को निश्चय हो गया कि इन दोनों चारपाइयों पर भूतनाथ तथा उसकी स्त्री शान्ता सोई हुई है। परन्तु उनका लडका हरनामसिह खेमे के अन्दर दिखाई न दिया और उसके लिए नानक का बहुत चिन्ता हुई तथापि वह साहस करके खेमे के अन्दर चला ही गया। डरता कापता नानक धीरे धीरे चारपाई के पास पहुच गया चाहा कि खञ्जर से इन दोनों का गला काट डाले मगर फिर यह साचन लगा कि पहिले किस पर वार कर. भूतनाथ पर या शान्ता पर? वे दोनों सिर से पैर तक चादर ताने पड़े हुए थे इससे यह मालूम करने की जरुरत थी कि किस चारपाई पर कौन सो रहा है साथ ही इसके नानक इस बात पर भी गौर कर रहा था कि रोशनी बुझा दी जाय या नहीं। यद्यपि वह वार करने के लिए खञ्जर हाथ में ले चुका था मगर उसकी दिली कमजोरी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा था और उसका हाथ काप रहा था। सातवाँ बयान किशोरी कामिनी कमलिनी और लाडिली ये चारों बडी मुहब्बत के साथ अपने दिन विताने लगीं। इनकी मुहब्बत दिखौवा नहीं थी बल्कि दिली और सचाई के साथ थी। चारों ही जमनो के ऊच नीच को अच्छी तरह समझ चुकी थीं और खूब जानती थी कि दुनिया में हर एक के साथ दुख और सुख का चर्या लगा ही रहता है खुशी तो मुश्किल से मिलती है मगर रज और दुख के लिए किसी तरह का उद्योग नहीं करना पडता, यह आप से आप पहुचता है, और एक साथ दस को लपेट लेने पर भी जल्दी नहीं छोडता, इसलिये बुद्धिमान का काम यही है कि जहा तक हो सके खुशी का पल्ला न छोडे और न कोई काम ऐसा करे जिसमें दिल को किसी तरह का रज पहुच। इन चारों औरतों का दिल उन नादान और कमीनी औरतों का सा नहीं था जो दूसरों को खुश देखते ही जलभुन कर कोयला हो जाती हैं और दिन रात कुप्पे की तरह मुह फुलाये आखों से पाखण्ड का आसू बहाया करती है अथवा घर की औरतों के साथ मिल जुल कर रहना अपनी बइज्जती समझनी है। इन चारों का दिल आईने की तरह साफ था। नहीं नहीं हम भूल गये, हमें दिल के साथ आईने की उपमा पसन्द नहीं। न भालूम लोगों ने इस उपमा को किस लिये पसन्द कर रक्खा है ! उपमा में उसी वस्तु का व्यवहार करना चाहिए जिसकी प्रकृति में उपमेय से किसी तरह का फर्क न पड़, मगर आईने (शीशे) में यह बात पाई नहीं जाती हर एक आईना येऐव साफ और बिना धब्बे के नहीं होता और वह हर एक की सूरत एक सा भी नहीं दिखाता बल्कि जिसकी जैसी सूरत होती है उसके मुकाबिले में वैसा ही बन जाता है। इसलिये आईना उन लोगों के दिल को कहना उचित है जो नीति कुशल हैं या जिन्होंने यह बात ठान ली है कि जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही करना चाहिये, चाहे वह अपना हो या पराया छोटा हो या बडा। मगर इन चारों में यह बात न थी ये बडों की झिडकी को आशीर्वाद और छोटों की ऐंठन को उनकी नादानी समझती थीं। जब कोई हमजोली या आपुस वाली क्रोध में मरी हुई अपना मुह विगाडे इनके सामने आती तो यदि मौका होता तो ये हस कर कह देतीं कि 'वाह, ईश्वर ने अच्छी सूरत बनाई है । या बहिन हमने तो तुम्हारा जो कुछ विगाडा सो विगाडा मगर तुम्हारी सूरत ने तुम्हारा क्या कसूर किया है जो तुम उसे विगाड रही हो ? बस इतने ही में - उसफा रग बदल जाता। इन बातों को विचार कर हम इनके दिल का आईने के साथ मिलान करना पसन्द नहीं करते बल्कि यह कहना मुनासिब समझते है कि इनका दिल समुद्र की तरह गम्भीर था ! इन चारों को इस बात का ख्याल ही न था कि हम अमीर हैं हाथ पैर हिलाना या घर का कामकाज करना हमारे लिए पाप है। ये खुशी से घर का काम जो इनके लायक होता करतीं और खाने पीने की चीजों पर विशेष ध्यान रखती। सबसे बडा ख्याल इन्हें इस बात का रहता था कि इनके पति इनसे किसी तरह रज न होने पावें और घर के किसी बडे बुजुर्ग को इन्हें बेअदव कहने का मौका न मिले। महारानी चन्द्रकान्ता की तो बात ही दूसरी है, ये चपला और चम्पा को भी सास की तरह समझती और इज्जत करती थीं। घर की लौडिया तक इनसे प्रसन्न रहती और जब किसी लौंडी से कोई कसूर हा जाता तो झिडकी और गालियों के बदले नसीहत के साथ समझा कर ये उसे कायल और शर्मिन्दा कर देती और उसके मुँह से कहला देती कि येशक मुझसे भूल हुई आइन्दे कभी ऐसा न होगा !सबसे विचित्र बात तो यह थी कि इनके चेहरे पर रज क्रोध या उदासी कभी दिखाई देती ही न थी और जब कभी ऐसा होता तो किसी भारी घटना का अनुमान किया जाता था। हा, उस समय इनके दुख और चिन्ता का कोई ठिकाना न रहता था जब ये अपने पति को किसी कारण दुखी देखती। ऐसी अवस्था में इनकी सच्ची भक्ति के कारण इनके पति को अपनी उदासी छिपानी पडती या इन्हें प्रसन्न करने और हँसाने के लिए और किसी तरह का उद्योग करना पडता। मतलब यह है कि इन्होंने घर मर का दिल अपने हाथ में कर रक्खा था और ये घर की प्रसन्नता का कारण समझी जाती थी। चन्द्रकान्ता सन्तति भाग २३