पृष्ठ:देवांगना.djvu/५३

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"तुम बहुत ही सुन्दर हो प्रिय," मंजु ने निकट आकर उसका उत्तरीय छू लिया।

दिवोदास ने उसका आँचल पकड़कर कहा—"मंजु, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ––प्राणों से भी अधिक-क्या तुम जानती हो!"

मंजु का कण्ठ सूख गया––उसने भयभीत स्वर में कहा—"प्यार, नहीं-नहीं, यह असम्भव है।"

"नहीं प्रिये, यह खूब सम्भव है।"

मंजु ने दिवोदास का चीवर छूकर कहा—"भिक्षुराज, अपना यह चीवर देखो और मेरे कण्ठ का यह गलग्रह!" उसने कण्ठ में लटकती देवता की मूर्ति की ओर संकेत किया। फिर उसने टूटते स्वर में कहा—"हम दोनों नष्ट जीव हैं प्रिय, प्रेम के अधिकारी नहीं।"

दिवोदास ने आवेश में आकर कहा—"मेरा यह वेश और तुम्हारा गलग्रह झूठा आडम्बर है। सच्ची वस्तु हमारा हृदय है, और वह प्रेम से परिपूर्ण है। यदि हृदय-हृदय को खींचता है तो मैं कहूँगा, मेरी तरह तुम भी प्रेम का घाव खा गई हो।"

मंजु सिर नीचा किए खड़ी रही—दिवोदास ने कहा—"बोलो, क्या तुम भी मुझसे प्रेम करती हो?"

"यह प्रश्न तो भिक्षु के पूछने योग्य नहीं है प्रिय, और...।"

"और क्या?"

"अभागिनी देवदासी के सुनने योग्य भी नहीं। इसी से कहती हूँ, मुझे जाने दो-मैं जाती हूँ।"

"जाना नहीं। मेरे प्रश्न का उत्तर दो।"

परन्तु मंजु ने उत्तर नहीं दिया। वह भूमि पर दृष्टि गड़ाए खड़ी रही। दिवोदास ने आवेशित होकर कहा—"कहो, कहो, सच बात कहो।"

"कहती हूँ।" इन शब्दों के साथ ही मंजु की आँखों से टप-टप आँसू टपक पड़े। उसने कुछ कहना चाहा, पर उसके मुँह से बोल नहीं फूटा। वह वहाँ से चलने लगी। दिवोदास ने बाधा देकर कहा—"तब जाती कहाँ हो प्रिये, इस पृथ्वी पर कोई शक्ति नहीं, जो हमें पृथक् कर सके। आओ हम पति-पत्नी के पवित्र सूत्र में बँध जायँ। यह उर्ध्वोन्मुख सूर्य और यह पतित पावनी गंगा हमारी साक्षी रहेंगे।" उसने कसकर मंजु को आलिंगन-पाश में बाँध लिया।

मंजु ने छटपटाकर कहा—"भिक्षुराज!"

"कौन भिक्षुराज, मैं विक्रमशिला के महा सेट्ठि धनंजय का इकलौता पुत्र दिवोदास हूँ," उसने अपना चीवर चीर-चारकर फेंक दिया।

मंजु हक्की-बक्की खड़ी देखती रह गई। उसके मुँह से बड़ी देर तक बोली न निकली। फिर उसने कहा—"प्यारे, जानते हो इस अपराध का दण्ड केवल मृत्यु है।"

"क्या मृत्यु से तुम डरती हो प्रिये?"

"मुझे मृत्यु से भय नहीं। मैं तुम्हारे लिए डरती हूँ, प्रिये।"

"मैं निर्भय हूँ। और सारे संसार के सामने मैं श्रेष्ठिराज धनंजय का पुत्र, आज से धर्मत: तुम्हारा पति हुआ।"

मंजु ने पुलकित गात होकर अस्त-व्यस्त स्वर में कहा—"और श्रेष्ठि पुत्र, मैं