पृष्ठ:देवांगना.djvu/५४

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लिच्छविराज कुमारी भगवती मंजुघोषा आज से धर्मपूर्वक तुम्हारी पत्नी हुई।"

दिवोदास ने आश्चर्य से उछलकर कहा—"क्या कहा? फिर कहो? राजकुमारी भगवती मंजुघोषा?"

"किन्तु तुम्हारी चिरकिंकरी प्रियतमा।" उसने दिवोदास की छाती में सिर छिपा लिया। दिवोदास ने उसे कसकर छाती से लगा उसके मुख पर प्रथम चुम्बन अंकित किया। मंजुघोषा ने अपने आँचल से एक भव्य माला निकालकर कहा—"इसे मैंने नित्य की भाँति अपने देवता के लिए बनाई थी, सो उसे अपनी हार्दिक अभिलाषाओं के साथ हृदय के देवता को अर्पण करती हूँ।"

माला उसने दिवोदास के कण्ठ में डाल दी। दिवोदास ने माला को चूम कर और हँसकर कहा—"यह देव प्रसाद तो भगवान् ही पा सकता है। देखो, यह माला ही हमको एक कर देगी।"

उसने वही माला कण्ठ से उतारकर मंजुघोषा के गले में डाल दी। दोनों खिल- खिलाकर हँस पड़े, और गाढ़ालिंगन में बद्ध हो गए।