पृष्ठ:देवांगना.djvu/९६

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लाने की बहुत चेष्टा की, परन्तु उसकी मूर्छा भंग न हुई। निरुपाय हो चर उसे पीठ पर लादकर संघाराम में ले आए। संघाराम के चिकित्सकों ने उसका उपचार किया। उपचार से तथा थोड़ा दूध पीने से वह कुछ चैतन्य हुआ। परन्तु उसकी संज्ञा नहीं लौटी।

बाहर बहुत कोलाहल हो रहा था। सहस्रों भिक्षु और भावुक भक्त चिल्ला रहे थे। डफ-मृदंग-मीरज बज रहे थे। सारा प्रांगण मनुष्यों से भरा था। महाराज श्री गोविन्द पालदेव आ चुके थे। उन्होंने अधीर होकर कहा—"आचार्य, अब पूजन-अनुष्ठान प्रारम्भ हो।"

आचार्य ने चिन्तित स्वर में कहा—"भिक्षु धर्मानुज को यहाँ लाओ। वह विधिवत् पूजन करे।"

कुछ भिक्षु उसे पकड़कर ले आए। वह गिरता-पड़ता आकर मूर्ति के सम्मुख खड़ा होकर हँसने लगा। इसी समय मूर्ति का आवरण उठाया गया। मूर्ति के मुख पर दिवोदास ने दृष्टि डाली। उसे प्रतीत हुआ जैसे मूर्ति मुस्करा रही है। उसने फिर देखा, मूर्ति ने दो उँगली ऊपर उठा कर कहा-"झूठे।" उसने स्वयं वह शब्द सुना, स्पष्टतया। उसने मूर्ति के ओठों को हिलते देखा। यह देखते ही दिवोदास मूर्च्छित होकर मूर्ति के चरणों में गिर गया। अनुष्ठान खण्डित हो गया। आचार्य वज्रसिद्धि असंयत होकर उठ खड़े हुए। सहस्र-सहस्र भिक्षु—'नमो अरिहन्ताय नमो बुद्धाय' चिल्ला उठे। आचार्य ने उच्च स्वर से कहा—"इस विक्षिप्त भिक्षु को भीतर ले जाओ। मैं स्वयं अनुष्ठान सम्पूर्ण करूँगा।"

परन्तु इसी समय मेघ गर्जन के समान एक आवाज आई—"ठहरो।"

सहस्रों ने देखा। एक भव्य प्रशान्त मूर्ति धीर स्थिर गति से चली आ रही है। उसके पीछे सुनयना वस्त्र में कुछ लपेटे हुए आयी हैं। उनके पीछे सुखदास और वही वृद्ध ग्वाला है। लोगों ने देखा, उसी सौम्य मूर्ति के साथ महाश्रेष्ठि धनंजय भी हैं।

सौम्य मूर्ति सबके देखते-देखते वेदी पर चढ़ गई। उसने प्रतिमा के सिर पर हाथ रखा। हाथ रखते ही प्रतिमा सजीव हो गई। वह हिलने लगी। प्रतिमा में सजीवता के लक्षण देख सहस्रों कण्ठ 'भगवती वज्रतारा की जय' चिल्ला उठे। प्रतिमा ने हाथ उठाकर सबको शान्त और चुप रहने का संकेत किया।

क्षण-भर ही में सन्नाटा छा गया। मूर्ति ने वीणा की झंकार के समान मोहक स्वर में कहा—"मूढ़ भिक्षुओ, तुम जानते हो कि धर्म क्या है?"

सहस्रों कण्ठों ने विस्मित होकर कहा—"माता, आप हमें धर्म की दीक्षा दीजिए।"

मूर्ति ने कहा—"मनुष्य के प्रति मनुष्यता का व्यवहार करना सबसे बड़ा धर्म है, संसार को संसार समझना धर्म का मार्ग है।"

सहस्रों कण्ठों से निकला—"मातेश्वरी वज्रतारा की जय हो।"

मूर्ति ने फिर वज्रसिद्धि की ओर उँगली से संकेत करके कहा—"यह धर्मढोंगी पुरुष, लाखों मनुष्यों को धर्म से दूर किए जा रहा है। मैं इस पाखण्डी का वध करूँगी।" मूर्ति ने सहसा खड्ग ऊँचा किया। जनपद स्तब्ध रह गया। भिक्षु गण चिल्ला उठे-

"रक्षा करो, देवि, रक्षा करो।"

वज्रसिद्धि अब तक विमूढ़ बना खड़ा था। अब उसने मूर्ति के रूप में मंजु को पहचानकर कहा—"यह देवी वज्रतारा नहीं है। यह पापिष्ठा धूत पापेश्वर के मन्दिर की अधम देवदासी मंजुघोषा है, इसे बाँध लो।"