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देव-सुधा


(१८)
चित्र-सा खिंचा हुआ

प्यारी सकेत सिधारी सखी सँग स्याम के काम मँ देसनि के सुख, सूनो इतै रंगभीन चितै चित मौन रहो चकि चौंकि चहूँ रुख ; एकहि बार रही जकि ज्यों कि त्यों भौंहनि तानि कैमानिमहादुख, देव कळू रदबोरीदै बोरी सुहाथ को हाथ रहीमुख की मुख॥१३२।। विप्रलब्धा नायिका का वर्णन है ।

सकेत (संकेत) = संकेत-स्थान । जकि = ठिठक करके । रद = दाँत ।

पीछे परबो. बी. संग की सहेली, आगे भार डर भूषन डगर डारै छोरि-छारि ;

मोरै मुख मोरनि त्यों चौंकति चकोरनि, त्यों भौंरनि की भीर भीरु देखै मुख मोरि-मोरि ।

एक कर आली कर ऊपर ही धरे, हरे- हरे पग धरै देव चलै चित चोरि-चोरि ; दू जे हाथ साथ लै सुनावति बचन, राज- हंसनि चुनावति मुकुत-माल तोरि-तोरि ॥ १३३ ।।

रहने पर भी निराधार नृत्य करनेवाले कहे जाते हैं, वैसे ही लटकन नथ का थोड़ा-सा अाधार लिए रहने पर भी देखने में निराधार-सा दिखाई देने से यहाँ पर निराधार ही कहा गया है । निरत-शब्द का अर्थ निश्चयेन रत का है, तथा यह शब्द नृत्य का अपभ्रश भी कहा जा सकता है।

लटकन का चटसार (पाठशाला) इस कारण से चटुल (चंचल) कहा गया है कि नथ सदा डुलता ही रहता है।