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देव-सुधा

सती का उदाहरण देकर कवि शुद्ध प्रेम का वर्णन करता है । बड़ा ही विशद वर्णन है। राचे (रच जाना) =प्रेम-विवश होना । साँचै करि कर मैं = सचाई को हाथ में लेकर ( सच्चे कर्म करके )। गड़ि= धसकर । ठाकुर = स्वामी।

कोकुल याब्रजगोकुलदोकुल दीप-सिखा-सी ससी-सी रहींभरि, त्यौं न तिन्हें हरि हेरत री रँगराती न जो अँगराती गरे परि; जो नबला नव इंदु-कला ज्यौं लची पर प्रेम रची पिय सों लरि, भेटत देखि बिसेखि हिए ब्रजभूभुज देव दुहूँ भुज सों भरि।

इस ब्रजगोकुल में कौन कुल दो कुल (भ्रष्ट ) है. ? (तथापि ) सबमें दीप-शिखा एवं शशि के समान सुंदरियाँ भरी पड़ी हैं । जो नायिका केवल विषय-वासना-युक्ता है. किंतु रंग ( प्रेम ) में रत नहीं

वह चाहे गले भी पड़े, तो भी भगवान् उसे उस प्रकार नहीं हेरते (जैसे प्रेमवती को)। जो नवेंदु-कला-समान यौवन-युक्ता नव- वधू प्रेमवती होकर नम्रता ग्रहण करे, चाहे पति से लड़े भी, उसे ब्रजपति विशेष करके देखकर दोनो भुजाओं से भरकर अंक लगाते हैं।

लची परै = झुकी पड़ती हैं, अर्थात् नम्र होती हैं । अँगराती- अंग से रत हैं, अर्थात् केवल अँग भव-विषय-वासना में रत हैं, प्रेम में नहीं।

जीव सों जीवन,जीवन सों धन, सो धन जीवित नाथ निबोधो, या चित की गति ईठ की ईठी लौईठ कीडीठि अनीठ लौंसोधो;

  • इस गोकुल में दो कुलवाला ( कुल-भ्रष्ट ) कौन कुल है ?

यह भी अर्थ है कि व्रज और गोकुल (के) दो कुलों में।

  • दूज का चाँद ।

$ राजा ( व्रजराज )।