पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२९
देव-सुधा

वेई ससि • सूरज उवत निसि - दौस, वही

नखत - समूह झलकत नभ न्यारो सो;

वेई देव दीपक समीप करि देखे, वही

दून्यौ करि देख्यो चैत पून्यौ को उज्यारो-सो।


वेई बन • बागन बिलोकै सीस • महल,

कनक मनि मोती कळू लागत न प्यारो सो;

वाही चंदमुखी की बा मंद मुसुकानि बिन

जानि परो सब जग अधिक अँध्यारो-सो ॥ १६२ ॥

वेई = वही । उवत = उदय होते हैं । दून्यौ करि देख्यो = दुगना देखा, अर्थात् बहुत देखा।

घोर लगै घर बाहिरहू डर नूत न नूत दवागि जरे-से , रंगित भीतिन भीति लगै लाख रंगमही रनरंग ढरे-सेक धूम घटागर धूपन को निकसै नवजालन ब्याल भरे-से। , . जे गिरि-कंदर-से मनि-मंदिर आज अहा उजरे उजरे-से॥१९॥

घोर डर - अतिशय भय । रंगमही = विलास-स्थान । धूम घटा- गर = अगर के धूम का समूह । अगर की लकड़ी जलाने से सुगंधि देती है । नूत न नूत = जो नए नहीं (अर्थात् पुराने) हैं, और जो नए हैं, वे दोनो दावानल से जले हुए दिखाई देते हैं । नूत आम को भी कहते हैं।

  • रँगी हुई दीवारों को देखकर डर लगता है, तथा विहार-स्थल

देखकर ( ऐसा भान.होता है कि ये ) ढाले हुए ( पूरे ) युद्धस्थल हैं ।

+ धूपों (सुगंधित धूमवाली धूप ) तथा अगर के धूम की घटानों का समूह नहीं निकलता है, वरन् उसमें नवीन सर्प-मे भरे हुए हैं। व्यालों में नवीनता यह है कि वे भाग से निकलते हैं।

  • उ(वे ) जलकर उजड़-से गए हैं।