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देव-सुधा
 

देव-सुधा दव पचसायक नचाई खोलि पंचन मैं , पंचहूकरनि पंचामृत सो अचं चुकीं । कुल - बधू है कै हाय कुलटा कहाई, अरु गोकुल मैं, कुल मैं कलंक सिर लै चुकी ; चित होत हित न हमारी नित ोर, सोतौ वाही चितचोरहि चितौत चित दे चुकी ।।२५४।। कै चुकीं कर चुकीं । पंचहूकरनि-पंचभूत के भागों का मिलना ( सृष्टि-प्रकरण का एक सिद्धांत )। पंचीकरणविधि । एक-एक तत्त्व के पाँच-पाँच भाग होकर कपिल का सांख्यशास्त्र बना है। उसी को पंचीकरण कहते हैं। अंजन सों रंजित निरंजनहि: जानें कहा , फोको लगै फूल रम चाखे ही जु बोड़ो को;

  • हमें कामदेव ने प्रकट रूप से पंचों में नचाया है, और पंची-

करण विधि को हम पंचामृत के समान पी चुकी हैं। + हमारी ओर नित्य न तो चित्त होता है न हित, क्योंकि हम वह चित्त देखते ही उस चित्तचोर को दे चुकी हैं। यह भी अर्थ है कि हित चित्त में होता है, किंतु वह चित्त हमारी ओर नहीं है। + निर्गुण ब्रह्म को। अंजन का आँखों से हटाना। $ जो अंजन से सुशोभित हैं वे निरंजन को (ईश्वर को, अंजन के अलग करने को) क्या जानें, क्योंकि जिसने बौड़ी (अंगूर केमद) को पान किया है, उसे पुष्प-रस फीका लगेगा ही। प्रयोजन यह है कि जो राग में रत है, वह राग छोड़कर ईश्वर में कैसे मन लगावे, क्योंकि वह राग अध्यात्मज्ञान से श्रेष्ठतर भी है । भाव यह है कि भक्ति ज्ञान से उत्तर है।