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देव-सुधा

कंपत हियो, न हियो कंपत हमारो, क्यों हँसी तुम्हें अनोखी, नेकु सीत मैं ससन देहुः अंबर हरैया हरि अंबर उज्यारो होत , हेरिकै हँसै न कोई हँसै तौ हँसन देहु । देव दुति देखिबे को लोयन मैं लागी लखौ, लोयन मैं लाज लागी, लोयन लसन देहु : हमरे बसन देहु, देखत हमारे कान्ह , अबहूँ बसन देहु, ब्रज में बसन देहु ॥ ५॥

चीर-हरण का वर्णन है। इसमें शृंगारिक तथा आध्यात्मिक, दोनो अर्थ बहुत अच्छे निकलते हैं।

गोपी-वचन - हमारा हृदय काँपता है (शृंगार के अर्थ में जाड़े से तथा आध्यात्मिक में योग साधने की क्रियाओं की कठिनता से)।

भगवद्वचन-हमारा हृदय नहीं काँपता ( इतना जाड़ा नहीं है, योग ऐसा कठिन नहीं)।

गो०- यह अनोखी हँसी तुम्हें क्यों (भाती) है?

भ०-अपने को जरा जाड़े में साँसे लेने दो। शृंगार में प्रयोजन यह है कि अभी नहीं निकलती हो, जब जाड़ा लगेगा, तब स्वयं निकल पाोगी। आध्यात्मिक प्रयोजन यह है कि थोड़ा-सा शीतोष्णोद्भव कष्ट सहन किए विना योग-सिद्धि प्राप्य है।

गो०-हे कपड़े हरण करनेवाले भगवान् ! श्रासमान उजियाला हुश्रा जाता है ( जिससे लोग-बाग यहाँ पा जावेंगे ), कोई देखकर हँसे न?

भ०- यदि आकाश उजियाला हो रहा है, और कोई हँसे, तो उसे हँसने दो। प्रयोजन यह है कि शुद्ध प्रेम और योग, दोनो के