पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/५५

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देव-सुधा
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पुम.नंदु = पूर्ण + इंदु = पूर्णेदु=पुमनेंदु=(पूणिमा का चंद्रमा) म.नेंदु फ.नेदु =चंद्रकांत-सी मणि धारण करनेवाला सर्प । अँचै=पान करके। पहले राधिका का मुख देखकर भगवान् उसे पूर्व दिशि में उदित कार्तिकी पूर्णिमा का चंद्र समझे, किंतु जब मणि-मंडित केश-पाश उस चंद्र से मणि-युक्त सर्प की भाँति उठता हुआ दिखाई दिया, तब उनका चित्त भ्रम में पड़ा, और उसी भ्रम से भूल गया। जब वैसा ही प्रकाश-पुंज आकाश में भी पूर्ण चंद्र के कारण तना हुआ दिखाई दिया, तब कुछ विश्वास न पड़ा कि ये दो चंद्र कहाँ से आए। अनंतर आँखों से रूप-अमृत-सा पीकर उन्होंने निश्चय-पूर्वक राधिकाजी का मुख पहचाना। फटिक सिलानि सों सुधार यो सुधा-मंदिर, उदधि दधि को-सो अधिकाई उमगै अमंद ; बाहेर ते भीतर लौं भीतिन देखैए देव, ___ दूध को-मो फेनु फेलो आँगन फरसबंद । तारा-सी तरुनि तामै ठाढ़ी झिलमिलि होति, मोतिन की जोति मिली मल्लिका को मकरंद ; आरमी-से अंवर मैं प्राभा-सी उज्यारी लगै, प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद ।। ५८ ॥ प्रतीप-अलंकार। फटिक स्फटिक, बिल्लौर।