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देव-सुधा


(८)
विनोद

गूजरी ऊजरे जोबन को कछु माल कहौ दधि को तब दैहौं, देव इतो इतराहु नहीं, ई नहीं मृदु बोल न मोल बिकहौं ; मोल कहा, अनमोल विकाहुगी, ऐचि जबै अधरा-रसु लैहौं, केसीकहो फिर तौकहौ कान्ह अब कहौहूँ कका कि सौंकहीं॥५६।।

नायक - हे गूजरी, उज्ज्वल जोबन का कुछ मोल कहो, तब हम दधि देवेंगे ( वापस करेंगे)। प्रयोजन यह है कि उन्होंने दहेड़ी छीन ली थी, जिसके फेरने का प्रश्न है।

नायिका- इतना मत इठलायो । न तो इन मृदु बोलों से बिगी, न मोल से।

नायक-मोल की बात ही क्या है, जब मैं तुम्हें खींचकर तुम्हारा अधर-रस लूँगा, तब तुम बिना मोल ही बिक जानोगी। नायिका-हे कृष्ण, कैसा कहा, फिर तो कहो । काकाजी की शपथ खाकर कहती हूँ कि अभी मैं भी कुछ कहूँगी। आइ खुभोखिरका मैं खरीखिन-ही-खिन खीन सखीन लखाही, चाह भरी उचकै चित चौंकि चितै चतुगई उतै चित चाही; बातन हो बहरावति मोहि, बिमोहित गातन की परछाहीं , ओड़ी किए उर ऐड़ती हौ भुज ऐंडि कहूँ उड़ि जैहौ तौनाहीं।।६।।

खिन-ही-खिन = क्षण-क्षण में । खीन =क्षीण, दुर्बल । चितै चतु-राई = चतुराई से देखकर । उतै चित चाही=उस तरफ़ चित्त ने चाहा । बहरावति = बहलावति है। गातन की परछाँही श्याम के शरीर की छटा । पोड़ी किए =ाड़ देकर । ऐड़ती हौ=ऐंडाती हो।

  • गढ़ी अर्थात् देर से खड़ी।