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देव-सुधा

नायिका के नैनों के लिये वर्षा-ऋतु का रूपक बाँधा गया है । कोयन = आँखों के किनारे ( कोया शब्द से बना है)। सुभू = सुंदर भौंहें ( सुध्र )। कादो कीचड़ ( काँदो) जादौ = यादव । तारे = नक्षत्र तथा आँखों को पुतरी । हिरदै न बसै = हृदय (पर) नहीं लगा हुआ है, अर्थात् वियोग की दशा है।

कंज-सों आनन खंजन-सों दृग या मन रंजन भूलें न वोऊ , तामरसौ नलिनौ सरमौ अलि होह नहीं तब सो चित सोउ, पूरन इंदु मनोज सरो चित ते विसरो उसगे उन दोऊ ,

  • इस मन में कमल-से मुख का तथा खरैचा-से नेत्रों का

क्या रंजन (शोभा-वृद्धि ) होता है ? क्या वे दोनो ( कमल तथा खंजन ) मुख तथा नेत्रों के आगे भूल नहीं जाते ?

  • हे अलि (भ्रमर ), यदि तुम नामरस (कमल) तथा

नलिनी ( कुमुदिनी ) दोनो से सरसो ( रस मानो, प्रसन्न होओ),तो तुम्हारा वह चित्त भी वही न हं गा (अर्थात् जो चित्त केवल कमल से प्रसन्न था, वह कमल र कुमुदिनी दानो से प्रसन्न होने से वही-का-वही नहीं रहेगा, प्रयुत उसकी गुणग्राहकता में क्षति पड़ जायगी)। प्रयोजन यह है कि यदि नायक का चित्त आनन तथा नेत्र के बराबर कंज तथा खंजन को मानै, तो उसका चित्त वैसा अनवधानता-पूर्ण माना जायगा, जैसा उस भ्रमर को, जो कमल और कुमुदिनी से समान प्रीति करे ।

$ पूर्ण चंद्र सरो (समाप्त हुअा, बीत गया ) (और मुख की बराबरी न पाकर ) चित्त से बिसरी तथा मनोज ( कामदेव) ( उसकी बराबरी. न कर सकने से ) उसरो (चित्त से हट गया)उ ( वे ) दोनो ( उपमेय के योग्य ) नहीं हैं।