पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/९७

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देव-सुधा
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घेरदार घाँघरा है तथा क्षीण कटि तक लंबी लटें लटकी हुई हैं। काँकरेजी ( पतले कपड़े तथा काले रंग की) सारी से टॅड़िया कुछ खुली तथा कुछ अधखुली हैं। जगमगी जोतिन जड़ाऊ मनि-मोतिन को चंदमुख-मंडल 4 मंडित किनारी-सी ; बेंदी बर बीरन गहीर नग हीरन की दव झमकान में झमक भीर भारी-सीके । अंग-अंग उमड़यो परत रूप रंग नव- जोबन-अनूपम उज्यास न उज्यारी-सी+; डगर-डगर बगरावति अगर अंग, जगरमगर आपु आवति दिवारी-सी ।। १२३ ।। गहीर = गंभीर, भारी । नग = रत्न । झमकनि = प्रकाश । उज्या- सन = प्रकाश-पमृह । अगर = अागे। गोरे मुख गोल हरे हँसत कपाल बड़े लोयन बिलोल बोल लोने लीन लाज पर ; लोभा नागे लाल लखिबे को कबि देव छवि गाभा-से उठत रूप सोभा के समाज पर । 8 बदी, अच्छे पानों तथा भारी हीरा के नगों के प्रकाशों में ज्योति की बड़ी भीड़-सी लगी है । + नए यौवन का ऐसा उजियाला है, मानो चाँदनी रही न गई। x रास्ते-रास्ते में अंग की जगमगाहट आगे ही फैलाती हुई स्वयं वह दीवाली-सी ( चमकती हुई ) चली आती है।