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काव्य-कला-कुशलता
है। तत्पश्चात्, उल्लिखित हो जाने के कारण पुनः वसंत का नाम
न ले, ग्रीष्म का कथन होता है और तत्पश्चात् वर्षा का वर्णन
पाता है। इस प्रकार देवजी षट् ऋतुओं का पांडित्य-पूर्ण सन्निवेश
करते हैं । प्रियतम की परदेश में मंगलपूर्वक स्थिति विरहिणी को
वसंत की ईषत् झलक दिखलाती है । यह झलक कहने-भर को है।
वसंत-पंचमी में वसंत की झलक भी ऐसी ही, कहने-भर को, है;
नहीं तो उस समय तो शीत ही होता है। सो विरहिणी की वसंत-
झलक का वसंत-पंचमी में आरोप ओर उसे भी हैं उत देव बसंत
सदा इत हेउत' के बीच में रखना नितांत विदग्धता-पूर्ण है। शारदी
पूर्णिमा और अमावस का पास-ही-पास कथन भी मनोहर है।
देवजी ने दीपक के भेद, परिवृत्ति-अलंकार, के उदाहरण में उपर्युक्त
छंद उद्धृत किया है।
(५) अरुन-उदोत सकरुन है अरुन नैन,
तरुनी-तरुन-तन तूमत फिरत है;
कुज-कुंज केलिकै नवेली, बाल बेलिन सो,
नायक पवन बन झूमत फिरत है।
अंब-कुल, बकुल समीडि, पीड़ि पाँडरनि,
मल्लिकानि मीडि घने घूमत फिरत है:
द्रुमन-द्रुमन दल दुमत मधुप "देव',
सुमन-सुमन-मुख चूमत फिरत है।
पवन की ललित लीला का नैसर्गिक चित्र कितना रमणीय बन
पड़ा है, वह व्याख्या करके नष्ट-भ्रष्ट करना हमें अभीष्ट नहीं है।
अतः पवन के शीतल, मंद, सुगंध तीनों गुणों को अन्य छंद में
सुनिए तथा देखिए कि कवि की दृष्टि कितनी पैनी होती है-
सँजोगिन की तू हरै उर-पीर, वियोगिन के सु-धरै उर पीर,
कलीनु खिलाय करै मधु-पान, गलीन भरै मधुपान की भीर।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१०५
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