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देव और विहारी
पड़ता है । ऊपर के दिखाव की अपेक्षा विहारीलाल सच्ची भक्ति के
जपमाला, छापा, तिलक सरै न एको काम ;
मन कॉचे, नाचे वृथा; सॉचे रांचे राम ।
जैसे देवजी ने अनुभव-शून्य जीवन की प्रौटते समय उफान
खाते हुए दूध से समुचित समता निदर्शित की है, वैसे ही
अनुभव-हीन यौवन पर विहारीलाल की निगाह भी अच्छी
पड़ी है-
यक मोजे, चहले परे, बूढ़े, बहे हजार;
किते न औगुन जग करत नै बै चढती बार ?
सचमुच देव और विहारी-सदृश कवियों की कविता पढकर एवं
वर्तमान भाषा-कविता की दुर्दशा देखकर बरबस विहारीलाल का
यह दोहा याद आ जाता है-
जिन दिन देखे वै कुसुम, गई सु बीति बहार ;
अब अलि, रही गुलाब मैं अपत कटीली डार ।
विहारीलाल के बेहद अनुभव का ऊपर अत्यंत स्थूल दिग्दर्शन
कराया गया है । वे परम प्रतिभावान् कवि थे। (विषय-श्रृंगार और
अतिशयोक्ति-वर्णन में वे प्रायः अद्वितीय थे।