प्रतिभा परीक्षा
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दिखलाई पड़ेगी । इसके विपरीत सोफ़ियाने ढंग की चाँदी की
अंगूठी उसी मणि की शोभा-वर्धिनी प्रमाणित हो सकेगी। यदि
अंगूठी चाँदी की है, तो तदनुरूप शोभा-विवर्धक रीति से मणि-
जटित होने पर उसकी प्रशंसा होगी और स्वर्ण की अंगूठी होने
पर तादृश रचना-कौशल अपेक्षित है।
चाहे लंबा छंद घनाक्षरी हो अथवा छोटा दोहा; भाव का समा-
वेश समुचित रीति से होना चाहिए । लंब शाट-पटावृत सनोहर
बालक का सौदर्य वैसे ही छिप जाता है, जैसे आठ-दश वर्ष की
बालिका की वेंधरिया पहनकर पूर्ण युवती विरूपा दिखलाई पड़ती
है। व्यर्थ के शब्दों का जमाव किए विना ही जिस प्रकार दोहा-
छंद में संपुटित कवि-उक्ति झलकती है, उसी प्रकार उत्तरोत्तर
उत्कर्ष-विवर्धनकारी शब्द-समूह घनाक्षरी-छंद में गुंफित उक्ति का
सम्यक् प्रस्फुटन कर देता है। थोड़ी-इस कारण सुकर सजावट
में विहारी का भाव जिस प्रकार परिलक्षित होता है, उसी प्रकार
भली भाँति-यद्यपि श्रमपूर्वक- देवजी-कृत सजावट नेत्रों को
अपनी ओर बलात् खींचती है। संगीत-कौशल मुख्य वस्तु है।
यदि स्वर-साम्य है, तो वह प्रशंसनीय है पर यदि संगीत का
पूर्णरूपेण अनुगमन करनेवाले वाद्य भी साथ हों, तो वे
संगीत-लौदर्य को बढा ही देगे। दोहा एवं घनाक्षरी-छंदों में
क्रम से सझिविष्ट भावे का इसी प्रकार समाधान कर लेना
चाहिए । तभी देव और बिहारी के साथ, तुलना करने में,
न्याय हो सकेगा।
___ दूसरी बात, जिस पर ध्यान दिलाने की आवश्यकता है, कथन-
शैली है । देवजी स्वभाव और उपमा को अलंकारों में मुख्य मानते
है। उन्होंने स्वयं सभी प्रकार के अलंकारों का सफलतापूर्वक प्रयोग
किया है, परंतु उपमा और स्वभाव के वे भक्त है । इन दोनों ही
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१४१
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