देव-विहारी तथा दास
इनके 'काव्य-निर्णय' और 'शृंगार-निर्णय' के पहले बना था । इन
दोनों ग्रंथों में दासजी ने तोष के भावों को भी अपनाया है। कविवर
श्रीपतिजी का 'काव्य-सरोज' 'काव्य-निर्णय' के २७ वर्ष पूर्व बन
चका था। उसका प्रातबिंब भी काव्य-निर्णय में मौजूद है। विचार
है, भाव-सादृश्यवाली यह सब सामग्री एक स्वतंत्र पुस्तक द्वारा हम
हिंदी-संसार के सम्मुख उपस्थित करें। उस समय दासजी की कविता
के दोनों ही प्रकार के समालोचकों को यह निर्णय करने में सरलता
होगी कि दासजी भाव-चोर हैं या सीनाज़ोर ! अस्तु । यहाँ पर भी हम
दासजी के प्रायः एक दर्जन छंद पाठकों के सामने रखते हैं । इनमें
स्पष्ट ही विहारीलाल के भावों की छाया है । पाठकों से प्रार्थना है
कि दोनों ही कवियों के भावों की बारीकियों पर ध्यानपूर्वक विचार
करें। जितनी ही सूक्ष्मदर्शिता से वे काम लेंगे, उतनी ही उनको इस
बात के निर्णय करने में सरलता होगी कि दासजी साहित्यिक
सीनाजोर हैं या सचमुच चोर ।
पहले दोनों कवियों के सदृशभाव-पूर्ण कुछ दोहे लीजिए-
डिगत पानि डिगलात गिरि लखि सब ब्रज बेहाल ;
कंप किसोरी-दरस ते, खरे लजाने लाल ।
विहारी
दुरे-दुरे तकि दूरि ते राधे, आधे नैन ;
कान्ह कपति नुव दरस ते, गिरि डिगलात, गिरै न।
दास
(२)
रवि बदौ कर जोरिकै, सुनै स्याम के वैन ;
भए हँसोहैं सबन के प्रति अनखोहैं नैन ।
विहारी
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१७९
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