विरह-वर्णन
तत्संबंधी सव दोहों का उल्लेख न होगा, परंतु तुलना करते समय
आवश्यकतानुसार कोई-कोई दोहा या दोहोश उड़त किया जायगा।
इसी प्रकार देवजी के विरह-संबंधी सब छंद उद्धत न करके केवल
कुछ का ही उल्लेख होगा । विरह-वर्णन में हम क्रम से पूर्वानुराग,
प्रवास और मान का वर्णन करेंगे। विप्रलंभ श्रृंगार के अंतर्गत दशों
दशाओं, विरह-निवेदन तथा प्रोषितपतिका, प्रवत्स्यत्पतिका एवं
अागतपतिका के भी पृथक्-पृथक् उदाहरण देंगे। हमारे विचार में
इन उदाहरणों के अंतर्गत दिरह का काव्य-शास्त्र में वर्णित प्रायः
पूरा कथन आ जायगा।
१-~-पूर्वानुराग
"जहाँ नायक-नायिका को परस्पर के विषय में रति-भाव उत्पन्न
हो जाता है, पर उभय तथा एक की परतंत्रता उनके समागम की
बाधक होती है और उसके कारण उन्हें जो व्याकुलता होती
है, उसे पूर्वानुराग-( अयोग ) कहते है।" ( रसवाटिका,
पृष्ठ ७१)
इत आवत, चलि जात उत; चली इ-सातिक हाथ;
चढ़ी हिडोरे से (?) रहे, लगी उसासान साथ ।
विहारी
"भावार्थ-श्वास छोड़ने के समय छ-सात हाथ इधर-आगे
की ओर-चली आते (ती) है और श्वास लेने के समय छ-सात
हाथ पीछे चली जाती है । उच्वासों के झोंकों के साथ लगी हिंडाले
से पर (?) चढ़ी झूलती रहता है।" (विहारी की सतसई, पहला
भाग, पृष्ठ ३६१)
साँसन ही सो सार गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो दरि ;
तंज गयो गुन लै अपनी अरु भूमि गई तनु की तनुता करि ।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२०१
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