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देव और विहारी
भरपूर बदला है ! वास्तव में विहारी के 'लाल' को जिसने इस
प्रकार खिझाया था, उसको देव के 'अंबर-हरैया कान्ह' ने खूब ही
छकाया ! बिहारीलाल के दुर्गम 'बतरस'-दुर्ग पर देव को जैसी
विजय प्राप्त हुई है, क्या वह कुछ कम है ? इस छंद का आध्यात्मिक
अर्थ तो और भी सुंदर है, पर स्थानाभाव-वश उसे यहाँ नहीं दे
सकते हैं। देवजी, कौन कह सकता है कि तुम विहारीलाल से किसी
बात में कम हो ?
.' (२) पावस का समय है । बादल उठे हैं । धुरवाएँ पड़ रही
हैं। पर विरहिणी को यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। उसे जान
पड़ता है, संसार को जलाता हुआ प्रथम मेघ-मंडल पा रहा है।
जलाने का ध्यान होने से वह उसे अग्नि के समान समझती है। सो
स्वभावतः वह धुरवाओं को आनेवाले बादल का उठता हुश्रा धुआँ
समझ रही है। जो मेघ आई करता है, वह जलानेवाला समझा
जा रहा है । कैसी विषमता-पूर्ण उक्ति है ! विहारीलाल कहते हैं-
धुरवा होहिं न; लखि, उठे धुआँ धरनि चहुँ कोद ;
जारत आवत जगत को पावस प्रथम पयोद ।
विहारीलाल की यह अनूठी उक्ति देखकर-'जगत को जारत'समझ-
कर देवजी घबरा गए । सो उन्होंने रंग-बिरंगी, हरी-भरी लताओं
को जोर-ज़ोर से हिलना और पूर्वी वायु के झकोरों में मुक जाना,
वन्य भूमि का नवीन घटा देखकर अंकुरित हो उठना चातका
मयूर, कोकिला के कलरव एवं अपने हरि को बाग़ में कुछ कर
गुजरनेवाले रागों का सानुराग श्रालाप-कार्य देखकर सोचा कि
क्या ये सब दृश्य होते हुए भी विरहिणी का यह सोचना उचित
है कि "जारत श्रावत जगत को पाक्स प्रथम प्रयोद।" इस प्रकृति-
अभिषेक को जिस प्रकार संयोगशाली देखेंगे, उस प्रकार खाने के
लिये देवजी ने अपने निम्नलिखित छंद की रचना की बदला
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२२
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