पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२२९

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तुलना २३. कहा जा सकता है कि ऐसे भाव-सादृश्य जहाँ कहीं हैं, वहाँ विहारी- लाल छाया-हरण करनेवाले नहीं हैं, क्योंकि वे देव के पूर्ववर्ती हैं तथा परवर्ती होने के कारण संभव है, देव ने भाव-हरण किए हों; परंतु यदि देवजी की कविता में भाव-हरण का दोष स्थापित किया जा सकता है, तो विहारी की अधिकांश कविता इस लांछन से मलिन पाई जायगी। क्या संस्कृत, क्या प्राकृत, क्या हिंदी सभी से विहारी- लाल ने भाव-हरण किए हैं । सूर और केशव की उक्कियाँ उड़ाने में तो विहारीलाल को संकोच ही नहीं होता था । भाव-सादृश्य में भी रचना-कौशल ही दर्शनीय है। विहारी और देव की कविता में इस प्रकार के भाव-सादृश्य अनेक स्थलों पर हैं । इस प्रकार के बहुत-से उदाहरण हमने, उभय कविवरों के काव्य से छाँटकर, एकत्रित किए हैं । भाव-सादृश्य उपस्थित होने का एक बहुत बड़ा कारण यह है कि दोनों कवियों ने प्रायः शृंगार-रसांतर्गत भाव, अनुभाव, नायिका- भेद, हाव, उद्दीपन आदि का समुचित रीति से वर्णन किया है। इस प्रकार के वर्णनों में स्वतः कुछ-न-कुछ समानता दिखलाई पड़ती है । पाठकों की तुलना-सुविधा के लिये कुछ सुधा-सूक्तियाँ यहाँ पर उद्धृत की जाती हैं- (१) बिहँसति-सकुचति-सी दिए कुच-आँचर-बिच बाँह : भीजे पट तट को चली न्हाय सरोवर-महि । .....विहारी पीत रंग सारी गरे अँग मिलि गई "देव', श्रीफल-उरोज-श्रामा आभासै अधिक-सी ; छूटी अलकनि झलकनि जल-बूंदनि की, बिना बेंदी-बंदन बदन-सोभा बिकसी। तजि-तजि . कुंज-पुंज ऊपर मधुप-पुंज गुजरत, मंजुबर- बोले.बाल पिक-सी ;