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देव और विहारी
आक औ कनक-पात तुम जो चबात हो,
तौ षटरस व्यंजन न केहूँ भाँति लटिगो।
भूषन, बसन कीन्हो व्याल, गज-खाल को, तो
सुबरन साल को न पैन्हिबो उलटिगो।
. दास के दयाल हौ, सुरीति ही उचित तुम्हें ;
लीन्ही जो कुरीति, तो तिहारो ठाट ठटिगो ।
छैकै जगदीश कीन्हो वाहन वृषभ को, तो
__कहा शिव साहब गयंदन को घटिगो ?
अंत में हम ब्रजभाषा-कविता की मधुरता का निर्णय,सहृदय के
हृदय पर छोड़ इसकी प्रकृत माधुरी के कुछ उदाहरण नीचे देते हैं-
पाँयनि-नूपुर मंजु बजै, कटि-किंकिनि मैं धुनि की मधुराई;
साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई;
माथे किरीट, बड़े हग चचल, मद हॅसी, मुखचद जुन्हाई
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रज-दूलह, देव सहाई ।
ब्रज-नवतरुनि-कदंब-मुकुटमनि श्यामा श्राजु बनी,
तरल तिलक, ताटक गंड पर, नासा जलज-मनी ।
यों राजत कवरी-थित कच, कनक-कंज-बदनी,
चिकुर-चंद्रकान-बीच परध बिधु मानहुँ प्रसत फनी ।
हित हरिवंश
भाषा की इस मधुरता से यदि पाठक द्रवीभूत न हों, तो इसे
कवि का दुर्भाग्य ही समझना चाहिए । कैसे छोटे-छोटे कोमल
शब्दों की योजना है ? क्या मजाल कि कोई अक्षर भी व्यर्थ रक्खा
गया हो ? भोलित शब्द कितने कम हैं ? सानुस्वार शब्द-माधुर्य
को कैसा बढ़ा रहे हैं ? संस्कृत के क्रिष्ट शब्दों का प्रभाव कानों का
कैसा उपकार कर रहा है ? खड़ी बोली की कविता के पक्षपातियों
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२३
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