भूमिका
तक का पता नहीं रहता । इन समालोचनाओं में ऐसी बातें भी
व्यर्थ ही लिख दी जाती हैं, जिनका कहीं पुस्तक में वर्णन तक
नहीं होता। इस प्रकार के कार्यों से समालोचक ग़रीब ग्रंथकर्ताओं
को निरुत्साहित करते रहते हैं।
हिंदी में आज दिन दर्जनों पत्र निकलते हैं और प्रायः सभी में
समालोचनाएँ भी प्रकाशित होती रहती हैं । परंतु किसी-किसी में
तो ऐसी विवेचना की जाती है, मानो ब्रह्म-ज्ञान की समीक्षा हो ।
इनमें क्रम से ऐसी निंदा का उद्गार बहिर्गत होता है, मानो समा-
लोचक कला-विज्ञान-संबंधी सभी विषयों से परिचित हों।.ऐसी
पांडित्य-पूर्ण समालोचना को पढ़कर जब चित्त में दोषों पर दृढ़
विश्वास हो जाता है, तब समालोचक-कथित दोषों के अतिरिक्त
गुणों का कहीं आभास भी नहीं मिलता, जैसे नाट्य-शाला में एक
उत्तम नट के कार्य संपादित कर चुकने पर एक साधारण नट की
चातुरी से चित्त पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। परंतु इसमें संदेह
नहीं कि इस प्रकार की समालोचनाओं की भी थोड़ी-बहुत श्राव-
श्यकता अवश्य है । कारण, अब पुस्तकें इतनी अधिकता से प्रकाशित
होती हैं कि सब प्रकार के मनुष्यों द्वारा उन सबका पढ़ा जाना
असंभव है और इसलिये कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता है, जो
पुस्तक-रसास्वादन करके जन-समुदाय को भिन्न-भिन्न रसों का परिचय
दे दिया करें। परंतु इनमें पूर्ण विवेक-बुद्धि होनी चाहिए। समालोचक
की यही एक ज़िम्मेदारी ऐसी कठिन है कि इसका सदा पालन होना
कठिन हो जाता है।
आज कल लेखक और कवि तो बहुत हैं, परंतु उनमें सुलेखकों
और सुकवियों की संख्या बहुत ही न्यून है । अतः सुयोग्य समा-
खोचक की सहायता विना उत्तम ग्रंथकारों को छाँट लेना दुःसाध्य
है। अनुभवी समालोचक तो इन कुलेखकों की योग्यता और रसिकता
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२८
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