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देव और विहारी
विराजमान हैं। देवजी अपने राम को पृथ्वी-पृष्ठ पर बने हुए
आकाश-मंदिर में बिठलाते हैं , संसार-व्यापी समस्त सलिल से
उनको स्नान कराते हैं, और विश्व-मंडल में प्राप्त सारे सुगंधित
फल-फूलों की भेंट चढ़ाते हैं । उनको धूप देने के लिये
अनंत अग्नि है, और अखंड ज्योति से ही उनकी दीपार्चना की
जाती है। नैवेद्य के लिये सारा अन्न उनके सामने है। वायु का
स्वाभाविक प्रवाह देवजी के राम-देव पर चैवर झलता हुआ
पाया जाता है। देवजी की पूजा निष्काम है; वह किसी समय
विशेष पर नहीं की जाती, सदैव होती रहती है। ऐसी पवित्र,
विशाल और भावमयी पूजा का वर्णन स्वयं देवजी के ही
शब्दों में पढ़िए-
"देव' नभ-मंदिर में बैठारथो पुहुमि-पीठ ,
सिगर सलिल अन्हवाय उमहत हौं ।
सकल महीतल के मूल-फल-फूल-दल-
___सहित सुगंधन चढ़ावन चहत हो।
अगिनि अनंत , धूप-दीपक अखंड जोति ,
जल-थल-अन्न दै प्रसन्नता लहत हो;
ढारत समीर चौर, कामना न मेरे और ,
आठौ जाम, राम, तुम्हें पूजत रहत हौं ।
देवजी को इन्हीं राम ने सुमति सिखलाई (दी) है, जिससे
उन्हें नख के अग्र भाग में सुमेरु का वैभव दिखलाई पड़ता है।
मुई के छेद में स्वर्ग, पृथ्वी श्रार पाताल के दर्शन होते हैं, एक
भूखे भुनगे में चतुर्दश लोक व्याप्त पाए जाते हैं; चींटी के सूक्ष्माति-
सूक्ष्म अंडे में सारा ब्रह्मांड समा रहा है । सारे समुद्र जल
के एक क्षुद्र-बिंदु में हिलोरे मारते हुए दिखलाई पड़ते हैं;
एक अणु में सब भूतगण विचर रहे हैं। स्थूल और सूक्ष्म मिल-
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२९६
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