देव और विहारी
माड़ा व्याप रहा है कि कुछ सूझता ही नहीं । ठहरिए, देवजी
की विशाल-प्रार्थना को पढ़िए, उसे बार-बार दुहराइए, सच्चे
मन से अपने को ईश्वर के अर्पण कर दीजिए, फिर मूढ़ता
नष्ट हो जायगी, अज्ञानांधकार का कहीं पता नहीं रहेगा,
कोमल श्रमल-ज्योति के दर्शन होंगे, आँखों में पड़ा हुआ माया
का माड़ा छूट जायगा, इंद्रिय-चोर भाग जायगा और आप सदा
के लिये सब प्रकार से निरापद हो जायेंगे-
मूढ है रह्यो है, गूढ़ गति क्यों न हूँढ़त है,
गूढचर इंद्रिय अगूढ़ चार मारि दै:
बाहर हू तर निकारि अंधकार सब,
ज्ञान की अगिनि सों श्रयान-बन बारि दै।
नेह-भरे भाजन मै कोमल अमल जाति ,
_____ताको हू प्रकास चहूँ पुंजन पसारि दै;
आवै उमड़ा-सो मोह-मेह घुमड़ा-सो "देव" ,
माया को मड़ा-सो अँखियन से उधारि दै।
देवजी के जिस ज्ञान की चर्चा ऊपर की गई है, उसका
विकास योग्य पान के हृदय-पटल पर ही संभव है। कुपात्र के
सामने उसकी चर्चा व्यर्थ है । जहाँ देव के इन भावों का परीक्षक
अंधा है, उसके पिट्ट गूंगे हैं तथा अन्य दर्शक बहरे हैं, वहाँ
इनका आदर क्या हो सकता है ? स्वयं देवजी कहते हैं-
साहेब अंध, मुसाहेब मूक, समा बहिरी, रँग रीझ को मान्यो ।
भूल्यो तहाँ भटक्यो भट औघट, बूड़िबे को कोउ कर्म न बाच्यो ।
भेष न सूझयो, कह्यो समुझयो न, बनायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो,
"देव" तहाँ निबरे नट की विगरी मति को सिगरी निसि नाच्यो ।
पर यदि ज्ञान-चर्चा की कृषि किसी सुपात्र के भावुक-उर्वर हृदय-
क्षेत्र में की गई, तो सुफल फलने में भी संदेह नहीं हो सकता।
पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/२९८
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