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देव और बिहारी
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कारणों से ? लोगों की रुचि, हृदय-ग्राहकता, पात्रों के चरित्रादि कैसे दिखलाए गए हैं ? आज कल दार्शनिक रीति की जितनी समालोचनाएँ प्रकाशित होती हैं, उन सबमें विवाद को बहुत स्थान मिल सकता है । पहले इतने कम ग्रंथ प्रकाशित होते थे कि उन सबका पढ़ा जाना बहुत संभव था और ग्रंथ का नाम और मिलने का पता जान लेने पर लोग उसे पढ़ डालते थे। अतएव उस समय सूक्ष्म समालोचनाओं ही की आवश्यकता थी। परंतु आज कल के लोगों को पुस्तकें चुन-चुनकर पढ़नी हैं । इस कारण अब दूसरे ही प्रकार की समालोचनाओं की आवश्यकता है।

हमारी समझ में किसी ग्रंथ की समालोचना करते समय तद्गत विषय का प्रत्येक ओर से निरीक्षण होना चाहिए। ग्रंथ का गौण विषय क्या है तथा प्रयोजनीय क्या है, वास्तविक वर्णन क्या है तथा भराव क्या है, आदि बातों का जिस समालोचना में विचार किया जाता है, उससे पुस्तक का हाल वैसे ही विदित हो जाता है, जैसे किसी मकान के मानचित्रादि से उस गृह का विवरण ज्ञात हो जाता है। अब तक जो समालोचनाएँ अच्छी मानी गई हैं, उनमें कथानकमात्र का उल्लेख कर दिया गया है। काल-भंग, दुष्कम आदि दूषणों के निरूपण में, पात्रों के शील-संबंधादि के विषय में या वर्णन-शैली की नीरसता पर कुछ टिप्पणी कर दी गई है। इस प्रकार की समालोचनाओं से पुस्तक के मुख्य भाव, रस-निरूपण, कवि-कौशल, वर्णन-शैली तथा लेखक की मनोवृत्तियों के विषय में कुछ भी विदित नहीं होता। गज़ट या वंशावली से जो हाल मिलता है, वही ऐसी समालोचनाओं से । ग्रंथ की प्रोजस्विनी भाषा हृदय की कली कली को किस भाँति खिला देती है, करुणोत्पादक वर्णन दुःख-सागर में कैसे मग्न कर देते हैं, लेख-शैली से लेखक की योग्यता के संबंध में कैसे विचार उत्पन्न होते हैं आदि बातों का