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दो बहनें

हो गया। डेस्क पर दावात में लाल स्याही थी। शशांक ने उसे ऊर्मि की साड़ी पर ढाल दिया। हाथ पकड़कर उसीके आँचल से अबीर निकालकर ऊर्मि के मुँह पर मल दिया। फिर दौड़-धूप, धक्कामुक्की, शोर गुल। स्नानाहार का समय निकल गया, ऊर्मि की ऊँची हँसी के उच्छास से सारा मकान मुखरित हो उठा। आखिरकार शशांक के अस्वास्थ्य की आशंका से दूत पर दूत मेजकर शर्मिला ने दोनोंको निवृत्त किया।

दिन बीत गया, रात बहुत ढल आई। पुष्पित कृष्णचूड़ा की शाखाओं को नीचे छोड़कर पूर्णचन्द्रमा अनावृत आकाश में उठ आया। अचानक फागुनी हवा का झोंका झरझर शब्द करता हुआ बगिया के समस्त पेड़-पौधों पर तरङ्गित हो उठा, नीचे की छाया के जाल ने उसका साथ दिया। खिड़की के पास ऊर्मि चुपचाप बैठी थी। उसे किसी तरह नींद नहीं आ रही थी। छाती में रक्त का हिल्लोल शांत नहीं हुआ था। आम की बौंर की सुगंध से मन भर उठा था। आज वसन्त में माधवीलता की प्रत्येक मज्जा में फूल खिलाने की जो वेदना जाग्रत थी, मानो वही वेदना ऊर्मि की समस्त देह को भीतर से उत्सुक कर रही थी। पास के नहाने के घर में जाकर

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