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दो बहनें

सारा दिन ही व्यर्थ हो जाय। आज अपने दुरन्त नशे की सांघातिक मूर्ति उसकी आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो उठी। वह उसी समय दीदी के चरणों पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बारंबार रुधे गले से कहने लगी--"खदेड़ दो मुझे अपने घर से, अभी निकाल बाहर करो मुझे!"

आज दीदी ने निश्चित रूप से स्थिर कर लिया था कि ऊर्मि को किसी प्रकार भी क्षमा नहीं करेंगी। लेकिन मन पिघल गया।

धीरे-धीरे ऊर्मिमाला के सिर पर हाथ फेरती हुई बोली--"कुछ चिन्ता न कर। कोई-न-कोई उपाय होगा ही।"

ऊर्मि उठकर बैठ गई। बोली, "दीदी, तुम्हीं लोगों का क्यों नुक़सान होगा? मेरे भी तो रुपया है।"

शर्मिला ने कहा--"पागल हुई है! क्या मेरे पास कुछ भी नहीं है? मथुराभैया से मैंने कह दिया है, वे कुछ गोलमाल न करें, मैं रुपया भर दूँगी। और तुझे भी कहती हूँ, ऐसा न हो कि तेरे जीजाजी के कानों यह बात पहुँच जाय कि मेरे पास तक भी ख़बर पहुँची है, भला?"

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