उन्हीं दिनों किसी कलाकार ने रंगीन पेन्सिल से शर्मिला का चित्र बनाया था। इतने दिन तक यह पोर्टफोलियो के भीतर था। उसे निकालकर उसने विलायती दूकान से बेशकीमती फ्रेम में मढ़वाया और अपने आफ़िसवाले कमरे में, जहाँ बैठता था, उसके ठीक सामने दीवाल पर टाँग दिया। सामने एक फूलदानी रखी गई जिसमें माली रोज़ फूल सजा जाया करता।
आख़िरकार एक दिन शशांक जब ऊर्मि को बाग़ीचे में यह दिखा रहा था कि सूर्यमुखी कैसी खिली हुई है, अचानक एक बार उसका हाथ पकड़कर बोला, "तुम ज़रूर जानती हो, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। और तुम्हारी दीदी? वे तो देवी हैं। मैं उनकी जितनी भक्ति करता हूँ उतनी जीवन में और किसीकी नहीं करता। वे पृथ्वी की मानवी नहीं, हम लोगों के धरातल से बहुत ऊँचे रहनेवाली हैं।"
दीदी ने ऊर्मि को बार-बार स्पष्ट रूप से समझा दिया है कि जब वे इस जगत् में नहीं रहेंगी, उस समय उनकी जो सबसे बड़ी सान्त्वना होगी, वह ऊर्मि को देखकर ही होगी। इस गिरस्ती में और किसी स्त्री का आविर्भाव होगा, यह कल्पना भी दीदी को कष्ट पहुँचाती। और