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दो बहनें

दिन जब यह सब ठीक करने का भार शर्मिला पर था तब शशांक उदासीन था। आज सब कुछ उलट गया है।

ज्यों ही शर्मिला ने कहा--"अच्छा, हो आना"---कि क्षण भर की प्रतीक्षा किए बिना ही शशांक बाहर निकल गया। शर्मिला को इच्छा हुई कि चिल्लाकर रोए। तकिए में मुँह छिपाकर बार-बार कहने लगी, "अब अधिक क्यों जी रही हू!"

फल रविवार को उनके ब्याह का वार्षिक दिन था। आज तक इस अनुष्ठान में कभी नागा नहीं हुआ। इस बार भी पति को बिना बताए ही, बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने सारी तैयारी की थी। और कुछ नहीं, ब्याह के दिन शशांक ने जो लाल बनारसी धोती-चादर का जोड़ पहना था, वही उसे पहनाएगी, पति के गले में माला देकर सामने बैठाकर खिलाएगी, धूपबत्ती जला देगी और पास के कमरे में ग्रामोफ़ोन पर शहनाई बजेगी। और-और साल शशांक उसे कुछ बताए बिना चुपके से कोई न कोई शौकिया चीज़ खरीदकर दिया करता। शर्मिला ने सोचा था, इस बार भी ज़रूर देंगे, कल जान सकूँगा।

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