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दो बहनें
देखते-देखते फल मिला। साँस का कष्ट कम हुआ, खून का उठना बंद हो गया। सात दिन बीत गए, पंद्रह दिन निकल गए। शर्मिला उठकर बैठ गई। डाक्टर ने कहा---"मृत्यु के समय शरीर मौत की तरफ़ वेपरवाह हो जाता है आखिरी धक्के के समय बहुत बार अपने को आप हो सम्हाल लेता है।"
शर्मिला जी गई।
उस समय वह सोचने लगी, यह कैसी आफत आई! अब क्या करूँ? आख़िरकार क्या जी जाना ही मरने से भी कठिन हो उठेगा? उधर ऊर्मि अपना सामान सम्हाल रही थी। यहाँ उसका अभिनय समाप्त हो गया।
दीदी ने आकर कहा--"तू जा नहीं सकेगी।"
"यह कैसी बात?"
"हिंदू समाज में क्या कभी किसी लड़की ने बहन की सौत होकर गृहस्थी नहीं चलाई ?"
" छि: !"
"लोक-निन्दा! तो विधाता के विधान से भी क्या लोगों के मुँह की बात ही बड़ी होगी?"
शशांक को बुलाकर कहा, "चलो हम लोग नेपाल चले। यहाँ दरबार में तुम्हें नौकरी मिलनेवाली थी----
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