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दो बहनें

छात्रो की तरह! लड़का माँ के निकट बचपन से ही जो सेवा-जतन पाने का आदी है, बहू उसीको दुहराने की दीक्षा पाती है। थोड़ी-सी स्त्रियों को ऐसा सुयोग मिलता है कि वे स्वतन्त्र रूप से पति की पूर्णता सम्पादन कर सकें, गृहस्थी को संपूर्णतया अपनी ही प्रतिभा से नये सिरे से गढ़ सकें।

किन्तु दूसरी तरफ़ ऐसे पुरुष भी अवश्य होते हैं जो इस आर्द्र प्यार-दुलार के आवेश से आपादमस्तक आच्छन्न रहना पसन्द ही नहीं करते। वे स्त्री को स्त्री के रूप में ही पाना चाहते हैं, चाहते हैं दोनों का अनुसंग। वे जानते हैं कि स्त्री जहाँ यथार्थ रूप से स्त्री होती है, पुरुष वहीं यथार्थ रूप से पौरुष का अवकाश पाता है। अन्यथा उसे आजीवन लालन-रस-लालायित बचपना ही निबाहना होता है। माँ की दासी को लेकर ज़िंदगी बिताने-जैसा दौर्बल्य पुरुष के जीवन में दूसरा नहीं हो सकता।

शशाङ्क ने अपनी स्त्री में नित्य-स्नेह-सतर्क माँ को ही पाया था। इसीसे उसका अन्तर अपरितृप्त ही रह गया था। ऐसी ही अवस्था में उसके कक्षपथ में ऊर्मि के आ पहुँचने से संघात हो बैठा--ट्रैजेडी घटित हो उठी। दूसरी ओर अत्यन्त निर्भरलोलुप नारियाँ भी संसार में अनेक होती हैं। वे लोग ऐसे पुरुष की कामना करती हैं जो उनकी प्राणयात्रा में मोटर-रथ के शोफ़र का काम करेगा। वे चाहती हैं पतिगुरु को--पदधूलि की वे भिखारिणी हुआ करती हैं।

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