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ज्ञातव्य

किन्तु इससे विपरीत जाति की नारियाँ भी अवश्य ही होती हैं जो अतिलालन-असहिष्णु प्रकृत पुरुष को ही चाहती हैं—जिसे पाकर उनका नारीत्व परिपूर्ण होता है। दैवयोग से ऊर्मि उसी जाति की थी। शुरू से ही चालक को लेकर—गुरु को लेकर—उसका दम घुटने लगा था। ठीक ऐसे ही समय उसे एक ऐसा पुरुष मिल बैठा जिसका अपना चित्त अनजाने ही स्त्री को खोज रहा था। जिसके साथ उसकी लीला अपने जीवन की सम-भूमि पर ही संभव हो सकती थी, वही उसकी यथार्थ जोड़ था।

भाग्य की अनहोनी को सुधारने जाकर सामाजिक अनहोनी निदारुण हो उठी। असल मामला यही है। उपसंहार में इतना ही कह रखना चाहता हूँ कि नारी-मात्र के भीतर माँ भी होती है—प्रिया भी होती है। कौन मुख्य है और कौन गौण, कौन अगवाह है और कौन पीछे—इसीके बल पर उनका अपना स्वातंत्र्य निश्चित होता है।"

२७ मार्च, १९३३

 

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