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दो बहनें

शायद छोड़ दी गई है। पति की सारी कमाई ज्यों की त्यों उसके हाथ में आ जाती है। यदि विशेष ज़रूरत हुई तो घर की अन्नपूर्णा से दुबारा भिक्षा माँगने के सिवाय शशांक के लिये दूसरा उपाय नहीं। यदि माँगने का दावा अनुचित साबित हुआ तो अर्जो नामंजूर होती है। शशांक मान लेता है सिर खुजलाकर। किसी ओर से मधुर रस पाकर नैराश्य का अभाव पूर्ण भी हो जाता है।

शशांक बोला, "नौकरी छोड़ देना मेरे लिये कुछ भी नहीं है। तुम्हारे लिये ही सोचता हूँ, तक़लीफ तो तुम्हें ही होगी!"

शर्मिला बोलो, "उससे भी बड़ी तकलीफ़ तब होगी जब अन्याय को निगलते समय वह गले में अटक जायगा।"

शशांक ने कहा, "कुछ करना तो होगा ही। निश्चित को छोड़कर अनिश्चित के लिये किस गली की खाक़ छानता फिरुँ"?

"वह गली तुम्हें नहीं दीखती। तुम नौकरी के बाहर की दुनिया को कुछ समझते ही नहीं।"

"समझता ही नहीं! क्या कहती हो तुम! यह

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