जब तक वह डाक में नहीं चला जाता तब तक मुझे शान्ति नहीं।"
"जान पड़ता है मुझे भी शान्ति नहीं मिलेगी।' लिख दिया उसने इस्तीफ़ा।
दूसरे ही दिन शर्मिला कलकत्ते चली गई और मथुरा भैया के घर जा पहुँची। अभिमान के साथ बोली, "किसी दिन भी तो बहन की ख़बर नहीं ली तुमने!" प्रतिद्वन्द्वी अगर स्त्री होती तो कहती, "तुमने भी तो नहीं ली।" लेकिन पुरुष के दिमाग़ में यह जवाब नहीं आ सका। उसने अपराध स्वीकार कर लिया। बोला, "साँस लेने को तो फुर्सत नहीं है। खुद ही जीवित हूँ कि नहीं इसीमें भूल हो जाती है। इसके सिवा तुमलोग भी तो दूर ही दूर घूमते रहते हो।"
शर्मिला बोली, "अख़बार में देखा कि मयूरभञ्ज या मथुरगंज में कहीं कोई पुल तैयार करने का काम तुम्हें मिला है। पढ़कर कितनी खुश हुई! उसी समय मन में आया कि मथुरा भैया को खुद जाकर कंग्रैचुलेट कर आऊँ।"
"ज़रा सब्र करो बहन, अभी भी समय नहीं हुआ।"
मामला यों था; नक़द रुपया लगाने की ज़रूरत थी।