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दो बहनें

का टीका लिया। उस दिन रो-धोकर शर्मिला ने कहा, "कुछ दिन आराम करो।"

शशांक अत्यंत संक्षेप में बोला, "काम।" इससे अधिक संक्षेप करके वाक्य नहीं कहा जा सकता।

शर्मिला बोली, "किन्तु"-इस बार बिना बोले ही शशांक बैंडेज-समेत काम पर चला गया।

ज़ोर-ज़बर्दस्ती की हिम्मत अब नहीं रही। अपने निज के क्षेत्र में अब पुरुष का ज़ोर दिखाई पड़ा है। युक्ति, तर्कं, आरज़ू-मिन्नत सबके बाहर एकमात्र बात रह गई है, "काम है।" शर्मिला बेकार उद्विग्न होकर बैठी रहती। देर होते ही सोचती, मोटर लड़ गई होगी। धूप लगने से जब पति का मुँह लाल हो गया होता है तो सोचती, ज़रूर इन्फ्लुएंज़ा हुआ है। डरती-डरती डाक्टर की बात उठाती है-लेकिन पति का भाव देखकर वहीं रुक जाती है। दिल खोलकर उद्वेग प्रकट करने का भी आजकल साहस नहीं होता।

शशांक देखते देखते धूप में झुलस गया है और चिड़चिड़ा हो गया है। छोटी कसी हुई धोती, वैसी ही छोटी कसी हुई फ़ुर्सत, चाल-ढाल तेज़, बातचीत चिनगारी की तरह संक्षिप्त। शर्मिला की सेवा इस द्रुत लय के

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