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दो बहनें

हस्तक्षेप करने में हिम्मत की ज़रूरत थी, तो भी जब शशांक वहाँ नहीं रहता उस समय शर्मिला हाथ में झाड़न लेकर प्रवेश करती है। वहाँ की रक्षणीय और वर्जनीय वस्तुओं में सजावट और श्रृंखला का समन्वय करने में उसका अध्यवसाय तनिक भी प्रतिहत नहीं होता।

शर्मिला सेवा करती है, किन्तु आजकल उस सेवा का बहुत बड़ा हिस्सा शशांक की दृष्टि के अगोचर ही रहता है। पहले उसका जो आत्मनिवेदन प्रत्यक्ष के निकट था अब उसीका प्रयोग प्रतीक के प्रति चल रहा है,--घर-द्वार सजाने में, फूल-पत्ता लगाने में, शशांक की बैठनेवाली कुर्सी को रेशम से ढँकने में, तकियों के पर्दों पर फूल काढ़ने में, आफ़िसवाले टेबुल के कोने में नील स्फटिक की फूलदानी को रजनीगन्धा के गुच्छों से सजाने में।

उसे अपने अर्ध्य को पूजा-वेदी से दूर स्थापित करना पड़ा, लेकिन बड़े कष्ट से। अभी कुछ दिन पहिले ही जो आघात लगा था उसका चिन्ह निर्जन में आँख के पानी से पोंछना पड़ा। उस दिन कार्तिक की उन्नीसवीं तारीख़ थी, यही शशांक का जन्मदिन है। शर्मिला के जीवन में यह सबसे बड़ा पर्व है। नियमानुसार बन्धु-बांधुवों का

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