पृष्ठ:दो बहनें.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
दो बहनें

उसे निश्चय ही एक अत्यन्त बेकार बहाना समझा होता। लेकिन बिजिनेस! आमोद-प्रमोद पर्याप्त हुए। नीलूबाबू ने थियेटर की नक़ल करके सबको खूब हँसाया। शर्मिला ने भी इस हँसी में योग दिया। शशांक-रहित शशांक के जन्मदिन ने शशांक-अधिष्ठित बिज़िनेस को साष्टांग प्रणिपात किया।

दुःख काफ़ी हुआ, तथापि शर्मिला के मन ने भी दूर से ही शशांक के इस धायमान कर्म-रक्ष की ध्वजा को प्रणिपात किया। उसके पास वह दुरधिगम्य कार्य है जो किसीकी ख़ातिर नहीं रुकता, किसीको नहीं मानता, स्त्री की विनती को भी नहीं, मित्रों के निमन्त्रण को भी नहीं, खुद के आराम को भी नहीं। कार्य के प्रति इस श्रद्धा के द्वारा पुरुष अपने आपको श्रद्धा करता है, यह है उसका अपनी शक्ति के निकट अपने-आपका निवेदन। शर्मिला गृहस्थी की रोज़-रोज़ की कर्मधारा के इस पार खड़ी होकर संभ्रम के साथ देखती रही है दूसरे किनारे पर चलनेवाले शशांक के कार्य को। उसकी सत्ता बहुव्यापक है, घर की सीमा छोड़कर दूर देश को चली जाती है—सुदूर समुद्र के पार, जाने-अनजाने कितने ही लोगों को वह अपने शासन-जाल में खींच लाती है।

२३