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दो बहनें

नीरद का ही है। निषेध का फल यह हुआ कि भवानीपुर की ओर ऊर्मि का आना-जाना कम हो गया। ऊर्मि का यह आत्मशासन एक बड़े ऋण-शोध के समान है। उसके जीवन का दायित्व लेकर नीरद ने जो हमेशा के लिये अपनी साधना को भाराक्रान्त कर लिया है, उससे बढ़कर विज्ञान-तपस्वी के लिये आत्म-अपव्यय और क्या हो सकता है!

नाना आकर्षणों से मन को खींच लेने का दुःख अब एक प्रकार से ऊर्मि को सह गया है, तो भी रह-रहकर एक वेदना मन में दुर्वार हो उठती है: उसे चञ्चलता कहकर वह सम्पूर्ण रूप से दबा नहीं सकती। नीरद केवल उसकी परिचालना ही करता है, किन्तु एक क्षण के लिये भी उसकी साधना क्यों नहीं करता। इस साधना के लिये उसका मन राह देखता रहता है,-इस साधना के अभाव में ही उसका हृदय पूर्ण विकास की ओर नहीं पहुँच पाता। उसका समस्त कर्तव्य निर्जीव और नीरस हो जाता है। किसी-किसी दिन अचानक मालूम होता है कि नीरद की आँख में एक प्रकार का आवेश आया है, मानों अब देर नहीं है, प्राण का गंभीरतम रहस्य अभी निकल पड़ेगा। किन्तु अन्तर्यामी जानते हैं कि उस गभीर की

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