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दो बहनें

"ले जाइए" कहकर ऊर्मि ने कुंजी उसके हाथ में दे दी। सितार की ओर एक बार नीरद की नज़र पड़ी किन्तु फिर दुविधा में पड़कर रुक गया।

आख़िरकार नितान्त कर्तव्य के अनुरोध से ही नीरद को कहना पड़ा, "मुझे केवल एक डर है। शशांकबाबू के घर की ओर तुम्हारा आना-जाना अधिक होता रहा तो इसमें कोई संदेह नहीं कि तुम्हारी निष्ठा कमज़ोर हो जायगी। यह मत समझना कि शशांकबाबू की मैं निंदा कर रहा हूँ। वे बहुत ही अच्छे आदमी हैं। काम-धाम में उस प्रकार का उत्साह और वैसी बुद्धि मैंने बहुत कम बंगालियों में देखी है। उनका एकमात्र दोष यही है कि वे किसी भी आदर्श को नहीं मानते। कहता हूँ, उनके लिये कई बार मुझे भय होता है।"

इसपर से शशांक के अनेक दोषों की बात उठी और साथ ही नीरद इस अत्यन्त शोचनीय दुर्भावना को भी दबाकर नहीं रखसका कि उनमें बहुत से ऐसे दोष अभी ढके हुए हैं जो उम्र बढ़ने के साथ ही साथ एक-एक करके प्रबल आकार में प्रकट होंगे। लेकिन यह सब होने पर भो नीरद मुक्त-कंठ से ही स्वीकार करना चाहता है कि वे बहुत भले आदमी हैं। उसीके साथ यह भी

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