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दो बहनें

प्रकार राज़ी नही हुआ। इसके लिये उसे बहुत दिनों तक इन्तेज़ार भी करना पड़ा। उसने राजाराम बाबू को बताया, 'अस्पताल की स्थापना के लिये आप जितना रुपया देना चाहते हैं अपनी लड़की के नाम जमा कर दीजिए। मैं जब अस्पताल का भार लूँगा तो कोई वृत्ति नहीं लूँगा। मैं डाक्टर हूँ, मेरी जीविका के लिये कोई चिन्ता नहीं।'

इस एकांत निःस्पृहता को देखकर राजाराम की भक्ति उसपर और भी दृढ़ हो गई और उर्मि ने खूब गर्व अनुभव किया। इस गर्व का उचित कारण उपस्थित होने की वजह से शर्मिला का मन नीरद पर से बिल्कुल विरूप हो गया, बोली "उफ़, देखूँ यह दिमाग़ कितने दिनों तक रहता है!" इसके बाद से नीरद अपनी आदत के अनुसार जब अत्यन्त गम्भीर भाव से कुछ कहने लगता तो शर्मिला बातचीत के बीच में से अचानक उठ पड़ती और गर्दन टेढ़ी करके बाहर निकल जाती। कुछ दूर तक उसके पैरों की आवाज़ सुनाई पड़ती। ऊर्मि की ख़ातिर कुछ बोलती तो नहीं किन्तु उसके न बोलने की व्यंजना काफ़ी तेज से तपी होती।

शुरू-शुरू में नीरद हर मेल की चिट्ठी में चार-पाँच पन्ने का

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