विस्तारित उपदेश देता रहा। कुछ दिन बाद एक टेलीग्राम देकर सबको अचरज में डाल दिया: लंबी संख्या के रुपयों की ज़रूरत है, पढ़ाई के लिये। जो गर्व इतने दिनों तक ऊर्मि का प्रधान सम्बल था उसमें काफ़ी चोट लगी किन्तु मन में थोड़ी सांत्वना भी मिली। ज्यों-ज्यों दिन बीतने लगे और नीरद की अनुपस्थिति लम्बी होती गई, त्यों-त्यों ऊर्मि का पहले का स्वभाव कर्तव्य के घेरे के भीतर सूराख़ खोजने लगा। अपनेको नाना बहानों से भुलाया भी करती और पश्चाताप भी करती। ऐसी आत्मग्लानि के समय नीरद को रुपये-पैसे से सहायता करने में उसका सन्तप्त मन थोड़ी सांत्वना पा जाता।
ऊर्मि टेलिग्राम को मैनेजर के हाथ में देकर संकोच से बोली, 'काकाजी, रुपये--'
मैनेजर बाबू ने कहा, 'कुछ समझ में नहीं आ रहा। हम तो यही जानते थे कि रुपया उधर अस्पृश्य ही समझा जाता है।' मैनेजर नीरद को पदन्द नहीं करते थे।
ऊर्मि बोली, 'लेकिन विदेश में--' बात आधे में रुक गई।
काकाजी ने कहा, 'इस देश का स्वभाव विदेश की