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दो बहनें

चोटी ऊँची कर दी जाती है तो सर्वसाधारण उसके प्रति श्रद्धा प्रकट करने लगते हैं। इसलिये नहीं कि उससे उनका उपकार होता है बल्कि उसके बड़प्पन को देखने से ही चित्त में स्फूर्ति का सञ्चार होता है। शर्मिला के सिरहाने बैठकर शशांक के मन में जब उद्वेग चला करता, तो उस समय वह यह यह सोचे बिना नहीं रह पाता कि उसके कार्य की सृष्टि किस जगह अनिष्ट की आशंका है। शर्मिला जानती है कि शशांक की यह भावना कृपण की भावना नहीं, बल्कि अपनी अवस्था के निचले तल से ऊपर की ओर जय-स्तम्भ खड़ा कर देने के लिये पुरुषार्थ की भावना है। शशांक के इस गौरव से शर्मिला गौरवान्वित थी। इसीलिये पति उसके रोग की तीमारदारी में उलझकर कामकाज में ढिलाई करे, यह बात सुखकर होने पर भी उसे अच्छी नहीं लगती। इसीलिये उसे बार-बार वह कामकाज की ओर लौटा देती।

इधर अपने कर्तव्य के बारे में शर्मिला की उत्कंठा का कोई अन्त नहीं। आज वह खाट पकड़े है और उधर नौकर-चाकर न जाने क्या कर रहे हैं। उसके मन में बिल्कुल सन्देह नहीं कि वे लोग रसोई में ख़राब

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