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दो बहनें

की दुनिया की कल्पना शर्मिला कर ही नहीं सकती। आज डर लग रहा है कि मृत्यु का दूत आकर जगत् और जगद्धात्री के बीच विच्छेद न पैदा कर दे। यहाँ तक कि उसे आशंका हुई कि मृत्यु के बाद भी शशांक का दैहिक अयत्न शर्मिला के विदेही आत्मा को शांतिहीन बना रखेगा। भाग्य से ऊर्मि थी। वह उसकी तरह शांत नहीं है, तो भी उसकी ओर से कामकाज चला लेती है। यह काम भी तो लड़कियों के हाथ का ही काम है। उस स्निग्ध हाथ का स्पर्श पाए बिना पुरुषों के प्रतिदिन के जीवन के प्रयोजन में रस ही नहीं रह जाता। सब कुछ जाने कैसा श्रीहीन हो जाता है। इसीलिये ऊर्मि जब अपने सुन्दर हाथों में छुरी लेकर सेब के छिलके छड़ाती और काट-काटकर उन्हें सजाती है, नारंगी के कोओं को सँभालकर सफ़ेद पत्थर की थाली में एक ओर रखती है, बेदाने के दानों को जतन से सजा देती है तो शर्मिला अपनी बहन के भीतर मानों अपने-आपको ही पाती है। बिस्तर पर सोए-सोए उससे हमेशा काम की फ़रमाइश किया करती है-

'उनके सिगरेट केस को भर देना ऊर्मि';

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