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दो बहनें

किसी को प्रसन्न कर सकती है--यह बात बहुत दिनों से उसके निकट दबी रह गई थी: इसीसे उसकी वास्तविक गौरव-हानि हुई थी।

शशांक का आहार-विहार यथा-अभ्यास चल है कि नहीं, ठीक समय पर ठीक चीज़ का आयोजन हुआ या नहीं, यह बात इस घर के प्रभु के मन में गौण हो गई है; प्रभु यों ही अकारण ही प्रसन्न हैं। शर्मिला से शशांक कहता, "तुम छोटी-मोटी बातों को लेकर इतना परेशान क्यों होती हो। अभ्यास में ज़रा फेर-बदल होने से कुछ असुविधा तो होती नहीं, बल्कि वह अच्छा ही लगता है।"


इन दिनों शशांक का मन ज्वार-भाटे के बीच में पड़ी हुई नदी की भाँति हो गया है। कामकाज का वेग ठिठक-सा गया है। किसी ज़रा-सी देर के लिये या बाधा से मुश्किल हो जायगी, नुकसान होगा, ऐसी उद्वेगजनक बातें सदा नहीं सुनाई देतीं। ऐसा कुछ यदि प्रकट भी होता है तो ऊर्मि उसकी गम्भीरता की तोड़ देती है, हँस देती है---मुँह का गंभीर भाव देखकर कहती है, 'आज तुम्हारा हौआ आया था क्या!---वही हरी पगड़ी वाला,

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