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दो बहनें

के पास कान लगाए रहने का उत्साह अब तक शशांक मजुमदार में अनभिव्यक्त ही था। आजकल जब ऊर्मि उसे इसीके लिये खींचकर ले जाती है तब यह विषय न तो तुच्छ ही मालूम होता है और न समय ही व्यर्थ जान पड़ता है। हवाई जहाज़ का उड़ना देखने के लिये एक दिन सुबह-सुबह उसे दमदम तक जाना पड़ा था, वैज्ञानिक कौतूहल उसका प्रधान आकर्षण नहीं था। न्यू मार्केट में शापिंग करने का यही उसका श्रीगणेश है। इसके पहले शर्मिला बीच बीच में मछली-मांस फल-मूल साग-सब्ज़ी खरीदने वहाँ जाती थी। वह जानती थी कि यह कार्य विशेष भाव से उसीके विभाग का है। यहाँ शशांक उसकी सहायता करेगा, यह बात कभी उसके मन में भी नहीं आई, उसने चाही भी नहीं। लेकिन ऊर्मि तो ख़रीदने नहीं जाती, वह सिर्फ़ चीज़ा को उलटपुलटकर देखती फिरती है, मोलभाव करती है और यदि शशांक ख़रीद देना चाहता है तो उसका मानीबैग छीनकर अपने बैंग की हाजत में डाल लेती है।

शशांक के काम के लिये ऊर्मि के दिल में जरा भी दर्द नहीं था। कभी-कभी वह ज़्यादा बाधा देने के कारण

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