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दो बहनें

शशांक की डाँट भी खा गई थी, पर उसका फल ऐसा शोकावह हुआ कि उसकी शोचनीयता दूर करने में शशांक को दुगुना समय देना पड़ा। इधर तो ऊर्मि की आँखों में वाष्प सञ्चार और उधर अपरिहार्य कार्य की ताक़ीद! आख़िर सङ्कट में पड़कर उसने घर के बाहर के चैम्बर में काम-काज ख़त्म कर देने की कोशिश की। लेकिन तीसरा पहर बीतते न बीतते वहाँ रहना दुःसह हो जाता जिस दिन किसी कारण से विशेष देर हो जाती उस दिन ऊर्मि का अभिमान दुर्भेद्य मौन के अन्तराल में दुर्जय हो उठता। इस रुध्द् अश्रु की कुहेलिका में आच्छन्न मान शशांक को आनन्दित करता। भले आदमी की तरह कहता, 'ऊर्मि तुम बात नहीं करोगी, इस सत्याग्रह की रक्षा करना उचित है, किन्तु धर्म की दुहाई है, नहीं खेलने का प्रण तो तुमने किया नहीं।' इसके बाद शशांक हाथ में टेनिस बैट लेकर चला आता। खेलते समय जब जीत के नज़दीक आता तो जान-बूझ-कर हार जाता। जो समय नष्ट होता उसके लिये फिर दूसरे दिन उठकर पश्चाताप किया करता। किसी छुट्टी के दिन सायंकाल शशांक जब दाहिने हाथ में लाल-नीली पेंसिल लेकर बाएँ हाथ की अंगुलियों को बिना कारण

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