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दो बहनें

सिर के बालों में फैरता हुआ, आफ़िस-डेस्क पर बैठकर किसी एक दुस्साध्य कार्य को करने के लिये मशगूल था, उसी समय ऊर्मि आकर बोली, "तुम्हारे उस दलाल के साथ तै किया है कि वह आज मुझे परेशनाथ का मन्दिर दिखाने को ले जाएगा। चलो मेरे साथ, मेरे भले जीजाजी!"

शशांक ने गिड़गिड़ाकर कहा, "ना भई, आज नहीं, इस समय उठना कठिन है।"

काम-काज के गुरुत्व से ऊर्मि को ज़रा भी डर नहीं लगता, बोली, "अबला रमणी को हरी पगड़ीवाले के साथ अरक्षित अवस्था में छोड़ देने में तुम्हें सङ्कोच नहीं होता, यही तुम्हारी शिवेलरी है?"

आख़िरकार उसकी खींचतान से शशांक को काम-काज छोड़कर मोटर हाँकनी पड़ी। इस प्रकार का उत्पात हो रहा है इसका आभास जब शर्मिला को मिलता तो वह बहुत नाराज़ होती क्योंकि उसके मत से पुरुष की साधना के क्षेत्र में स्त्रियों का अधिकार प्रवेश किसी प्रकार क्षम्य नहीं। शर्मिला ऊर्मि को बराबर छोटी बच्ची-जैसी ही जानती आई है। आज भी उसके मन में यही धारणा है, सो कोई बात नहीं, लेकिन इसीलिए दफ़्तर तो लड़कपन

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