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दो बहनें

संगी साथी नहीं; ज़रा खेलने-खाने का मौक़ा न मिलने स जिएगो कैसे!"

यह तो हुआ नाना प्रकार का लड़कपन। उधर शशांक जब कोई मकान बनाने का प्लैन बनाता रहता तो ऊर्मि उसकी बग़ल में कुर्सी खींचकर बैठ जाती, कहती, समझा दो। सहज ही समझ भी लेती, गणित के नियम उसे बिल्कुल जटिल नहीं लगते। शशांक अत्यन्त प्रसन्न होता। उसे प्राब्लम देता, वह हल कर लाती। कम्पनी के स्टीमलंच पर शशांक जब काम की देखरेख में निकलता तो वह हट फर बैठती, 'मैं भी जाऊँगी।' सिर्फ़ जाती ही नहीं, मापजोख का हिसाब लेकर बहस भी करती। शशांक पुलकित हो उठता। भरपूर कवित्व की अपेक्षा इसका रस ज्यादा होता इसीलिये अब चेम्बर का काम जब वह घर ले आता तो मन में आशंका नहीं रहती। लकीर खींचनेवाले हिसाब के काम में उसे साथी मिल गया है। ऊर्मि को बग़ल में बैठाकर समझा-समझाकर काम करता। यद्यपि काम बहुत तेज़ी से अग्रसर नहीं होता तो भी समय की लंबाई सार्थक जान पड़ती।

यही शर्मिला को काफ़ी धका लगता। ऊर्मि के

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