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दो बहनें

से क्या फायदा, जय कि रोज़ ही साफ़ मालूम होता है कि आराम मामूली हो गया है, पति बिना आराम के भी प्रसन्न है।

इसी ओर से शर्मिला के मन में अशांति का प्रवेश हुआ। रोगशय्या पर करवट बदलती हुई वह बार-बार अपने-आप से कहती, 'मरने से पहले यह बात समझ ही गई! और सब कर सकी हूँ सिर्फ प्रसन्न नहीं कर सकी। सोचा था, ऊर्मिमाला के भीतर अपने-आपको ही देख सकूँगी लेकिन वह तो बिल्कुल एक दूसरी ही लड़की है।' खिड़की के बाहर की ओर ताकती और सोचती 'मेरी जगह यह नहीं ले सकी; उसकी जगह मैं नही ले सकूँगी। मैं चली जाऊँगी तो सिर्फ़ नुक़सान ही होगा लेकिन वह चली जाएगी तो सब शून्य हो जाएगा।'

सोचते-सोचते अचानक याद आ गया कि जाड़ों के दिन आ रहे हैं, गर्म कपड़ों को धूप में देना चाहिए। ऊर्मि उस समय शशांक के साथ पिंग-पांग खेल रही थी, उसे बुला भेजा।

बोली, "ऊर्मि, यह चाभी ले, गर्म कपड़ों को छप्त पर धूप में फैला दे"।




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